छिपा सा था ......
छिपा सा था
तहखाने का वो दरवाज़ा
कराह के खोला था जब उसे
एक सुरंग बुला रही थी बेवजह
इतनी रौशनी थी अन्दर
आँखें चुंधिया सी गयी थी
अँधेरा घना होगा यह सुना था
लेकिन यह सुरंग कुछ नयी थी
मैं अन्दर रेंगता सा गया
अंधेरो को ढूँढने की खलबली सी थी
जाना पहचाना सा, अपना सा
वो मक़ाम जिसकी आदत बन चली थी
दूर कही छिपा सा था
एक स्याह अँधेरा दिखा तो था
तहखाने से निकली सुरंग का लेकिन
अब दरवाज़ा बंद हो चला था